महाराष्ट्र में क्यों हुई भाजपा की फजीहत ?
सलीम रज़ा
महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर चलेे रोमांचक मैच का सजीव प्रसारण देश का शायद ही कोई ऐसा अभागा होगा जिसने न देखा होगा। ये भी मालूम होगा कि इस रोमांचक मुकाबले में जीत भाजपा की ही हुई थी, लेकिन शिव सेना के रिव्यू ने सारा मामला ही बिगाड़ दिया नतीजा ये हुआ कि लगभग जीता हुआ मैच भाजपा की झोली में आते-आते निकल गया। गौरतलब है कि कल उच्चतम न्यायालय से मिला झटका फिर शाम को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के इस्तीफे के बाद लगभग ये बात साफ हो गयी थी कि 'बड़ी कठिन है डगर पनघट की' यानि अब महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार सदन में बहुमत साबित नहीं कर पायेगी, भारतीय जनता पार्टी ने भी मुख्यमंत्री,उप मुख्यमंत्री के इस्तीफे दिलाकर कम से कम उस जग हंसाई से अपने आपको बचा तो लिया जिसका उसे समय रहते अहसास हो गया था। सवाल ये नहीं है कि कुछ जुगाड़बाजों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखा, सवाल ये है कि क्या महाराष्ट्र में शिव सेना, एन.सी.पी. और कांग्रेस की जुगाड़ जुगलबन्दी बाली सरकार स्थायित्व दे पायेगी या नहीं ? मुझे एक दोहा याद आ रहा है ' कह कबीर कैसे निभे बेर केर को संग,बे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग' भले ही सियासत की चैपड़ पर बिछी बिसात में शिव सेना,एन.सी.पी. और कांग्रेस गलबहियां कर रही हों लेकिन जहां तक विचारधारा का सवाल है तो तीनों ही पार्टियों की विचार धाराओं में काफी अंतर है लेकिन इस वक्त जो एकजुटता तीनों पार्टियां मजबूती के साथ दिखा रही हैं उसके भी निहित स्वार्थ भी हैं।
दरअसल अभी संपन्न हुये विधान सथा चुनावो में जिस तरह से जोड़-तोड़ का अंक गणित अपनाकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सरकार बनाई थी शायद उसी सूत्र का इस्तेमाल भाजपा ने महाराष्ट्र में अपनाया था। यहां एक बात गौर करने लायक है कि महाराष्ट्र में विधान सभा चुनावों के परिणाम आने के बाद से जो स्थििति बनी थी उसके बाद से ही शिव सेना, एन.सी.पी. और कांग्रेस पार्टी के बीच खिचड़ी पकने लगी थी, हालांकि ये बात तीनों को ही मालूम थी कि उन्हें दरम्यान फांसले और विावाद सुलझाने ही होंगे। अपनी-अपनी कोशिशों में तीनों ही पार्टियां लगी रहीं भले ही सहमति बनने में देर हुई थी लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह से घटनाक्रम को अंजाम दिया उससे शायद इन तीनों पार्टियों को मजबूत पथ प्रदान किया अगर कहा जाये इसका क्रेडिट भाजपा को जाना चाहिए क्योंकि पहले कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी शिव सेना को समर्थन देने को लेकर काफी पशोपेश में थीं लेकिन शायद महाराष्ट्र में कांग्रेस इकाई के लोग शिव सेना के मंतव्य को भांप चुके थे इस लिहाज से हो सकता है कि उनका प्रेशर भी का्रगेस सुप्रीमो पर हो शायद ये ही बात तीनों पार्टियों की मजबूती का नतीजा रहा कि उनके विधायकों ने अपना खेमा नहीं बदला। यहां एक बात का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा कि जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने में अपनी उत्सुकता दिखाई उससे तीनों पार्टी के विधायकों को इस बात की उम्मीद जाग गई कि वो भी सरकार बनाने में क्यों अक्षम दिखें इस उम्मीद ने उनके मंसूबों को और भी ज्यादा मजबूती प्रदान करी फिर टूटने-फूटने का सवाल ही कहां उठता है।
कुछ लोगों का मानना है कि महाराष्ट्र में गठबन्धन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगी लेकिन आपने देखा होगा कि इस पूरे गेम में फिनिशर की भूमिका में सिर्फ और सिर्फ शरद पंवार ही नज़र आये हैं अगर मैं ये कहूं कि उद्धव ठाकरे और शरद पवार के बीच इन दिनों ट्यूनिंग अच्छी चल रही है तो शायद आप देख भी चुके कि शिव सेना का अड़ियल रवैया इस बात का द्योतक है। अगर हम पार्टी को अलग रख कर दूसरे नजरिये से देखें तो मराठा शरद पवार और ठाकरे घराने से काफी अच्छे रिश्ते रहे हैं दूसरी बात चुनाव के बीच में ही नोटिसों के दौर के चलते भाजपा और शरद पवार के दरम्यान फासले और भी बढ़ गये फिर वही कहावत 'मराठा मरता नहीं मारता है' शरद पवार और भी ज्यादा भाजपा पर हमलावर दिखे इस बजह से महाराष्ट्र की सियासत और भी ज्यादा काम्पलीकेटेड हो गई थी। जिस तरह के महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम सामने आये उसे देखकर तो नहीं कहा जा सकता कि वहां सत्ता विरोधी कोई लहर थी लेकिन मतदाताओं ने जो मैन्डेड दिया उससे साफ झलकने लगा कि वहां का मतदाता शिव सेना और भाजपा गठबन्धन को न स्वीकार करके नये विकल्प के रास्ते बना रहा है लेकिन ये बात परदे से बाहर तब आई जब देवेन्द्र फणनवीस और शिव सेना की मुस्तरका प्रेस कान्फेंस से शिव सेना का इंकार करना रहा ।
पूरे घटनाक्रम में अगर ये कहा जाये कि देवेन्द्र फणवीस को ही आघात लगा है तो ऐसा मानना गलत है मेरे ख्याल ये समूचे एन.डी.ए. को ही आघात पहुंचा है, ये आघात भाजपा को करबट दर करबट सतायेगा। क्योकि इसका दबाव अन्य राज्यों की सहयेगी सरकारों में भी देखने को मिल सकता है, ऐसे में ये वक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा की कार्यकुशलता और राजनीतिक सोंच पर खरा उतरने का भी है असल में ये उनके लिए किसी परीक्षा की घड़ी से कम नहीे है, इस पर भाजपा को गहनता से मंथन करने की जरूरत है। अगर हम कांग्रेस की बात करें तो जिस तरह से महाराष्ट्र में सियासी घटनाक्रम घटा है उसमें कांग्रेस की भूमिका भी सराहनीय कही जायेगी क्योंकि उसने जिस तरह से शिव सेना को अपना समर्थन दिया है उससे लगता है कि कांग्रेस ने अब अपना अहंकार दरकिनार करके सभी छोटे-बड़े दलों को एक प्लेटफार्म पर लाने की मंशा पाल रही है ? ऐसे में मुख्य विपक्षी दल को मात देने के लिए कांग्रेस अपने प्रतिद्धन्दी दलों से समझौता करने में भी नहीं हिचक रही है। अब शिव सेना को भी अपने कट्टर हिन्दुत्व वाली छवि से बाहर आकर उदार हिन्दुत्व की छवि बनानी पड़ेगी उसके साथ-साथ रोजगार,कृषि और किसान जैसे मसायल को हल करने के लिए प्राथमिकता के पटल पर रखना होगा। ये बात तो तय है कि शिव सेना केो अपने कार्यकाल में अग्नि परीक्षा के दौर से गुजरना होगा क्योंकि शिव सेना अपने राष्ट्रवाद में 'मराठा मानुष' को रोजगार जैसे क्षेत्र में प्राथमिकता के रूप में शामिल कर सकेती हैे लेकिन अन्य समुदायों को दरकिनार करके ये राह इतनी आसान नहीं होगी दूसरी तरफ महाराष्ट्र में जल्द ही निकाय चुनाव भी होने वाले हैं ऐसे में देखने वाली बात होगी कि क्या वहां पर भी क्या गठबन्धन की गुंजाईश होगी ? क्योंकि कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां शिव सेना ओर एन.सी.पी. ने एक दूसरे के खिलाफ अपने उममीदवार मैदान में उतारे थे , अगर ये गठबन्धन निकाय चुनाव में भी बदस्तूर रहा तो अवश्य भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
बहरहाल महाराष्ट्र के इस हाई वोल्टेज़ ड्रामें में शरद पवार एक विपक्ष के राष्ट्रीय नेता की शक्ल मे सामने आये हैं इस पूरे घटनाक्रम में शरद पवार एक अच्छे फिनिशर की भूमिका में जाना पहचाना नाम हो गया,, है , उनके अन्दर सलाहियत है वो विपक्ष को एकजुट करने में महारत भी रखते हैं, लिहाजा भाजपा को वेट एण्ड वाल की स्थििति में रहना होगा तो वहीं शिव सेना को अपने आचरण और व्यवहार में बदलाव लाने के साथ समग्र विकास का नारा देना होगा। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि शिव सेना के इतिहास में पहली बार कोई मातो श्री से बतौर मुख्यमंत्री आर्थिक नगरी के सिंहासन पर विराजमान हो रहा हे ऐसे में विचारों को तिलांजली देकर ही सत्ता र्निबाध रूप से चल सकती है। अब देखना ये है कि शिव सेना सत्ता को दूसरों के कन्धे पर कैसे और कितनी दूर ले जायेगी ये तो भविष्य के गर्भ में है।
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