वनों के कटान से जलवायु परिवर्तन के आसार लेकिन सिस्टम वैन्टीलेटर पर

 



सी.पी.डोभाल


पूर्व सर्वेयर, वन विभाग


 दून को चाट रहा अतिक्रमण का वायरस

हिमालय को गोद में बसा देव)षियों की तपस्थली देहरादून अपनी नैसर्गिक अनुपम छटा के लिए जाना जाता था जिसकी शान्त वादियों में देवता विचरण करते थे। ऐसा प्रतीत होता थ कि पूरे देहरादून को प्रकृति ने हरी चादरचादर ओढ़ा रखी हो  कभी यह शहर अपनी  स्वच्छ आबोहवा के लिये जाना जाता था इसीलिए अपनी दौड़-भाग और तनाव भरी जिन्दगी से कुछ पल चुराकर लोग यहां आकर प्रकृति की इस अनुपम छटा का दीदार करने के लिए दूर दराज शहरों से आते थे। इस हिमालयी घाटी में बसे इस शहर के बारे में किवदंती थी कि जो एक बार इस शहर में आ गया वो यहीं रहने की लालसा रखता था। इसीलिए इस शहर को रिटायर आदमियों का शहर भी कहा जाता था ? इस शहर के बारे में जितनी भी तारीफ करी जाये तो शायद इसके लिए अल्फाज़ भी कम पड़ जायें। इंसान की हर आवश्यक जरूरतें , पर्याप्त थीं ,प्रदूषण मुक्त स्वच्छ प्राकृतिक वातावरण जहां कोई शोर नहीं था, लेकिन इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर आते-आते इस शहर की सुन्दरता को मानों ग्रहण लग गया हो लेकिन सबसे ज्यादा बुरा हाल तब हुआ जब े देश के नक्शे पर एक नये राज्य के रूप में इसका उदय हुआ जिसको उत्तराखंड राज्य के रूप में जाना जाने लगा  और इसकी अस्थायी राजधानी देहरादून को बना दिया गया ।


अस्थायी राजधानी बनने के बाद जब सियासत ने अपने पांव फैलाये तो उनके साथ-साथ नाना प्रकार के माफियाओं ने यहां अपनी जड़ें जमाना याुरू कर दीं , नतीजा ये हुआ कि जनसंख्या घनत्व बढ़ने के कारण जमीनों की कीमतें आसमान को छूने लगीं नतीजतन आम आदमी के लिये घर बनाना दिन में क्ष्वाब देखने जैसा हो गया। सिस्टम में राजनीति ने अपनी जड़ें फैला दीं और इस शहर में भ्रष्टाचार का वायरस ट्रान्सप्लान्ट कर दिया और इसी भृष्ट व्यवस्था के परिणाम रूवरूप  देहरादून और उसके आसपास के क्षेत्रों पर राजनीतिक संरक्षण में भू-माफियाओं ने सरकारी जमीनों और वन भूमियों पर बड़ी बेरहमी से अपने पंजे गड़ाकर अतिक्रमण की शुरूवात की ।  धन लोभ और सत्ता संरक्षण के चलते सरकारी सिस्टम ने भी भू-माफियाओं के साथ अपने रिश्ते मजबूत बना लिए जिससे भू-माफियाओं के हौंसले बुलन्द हो गये जिसके चलते उन्होंने सड़क-रास्तों से लगी जमीनों को अपना निशाना बनाया जिसे महंगे दामों में खरीद करपूर्व नियोजित तरीके से इसके साथ लगी अन्य स्थानीय लोगों की जमीनों के संपर्क मार्ग को बंद कर दिया जिससे उन लोगों की जमीनों के खरीददार  ढ़ूंढ़े से नहीं मिल रहे थे ऐसे में उन लोगों के पास एक ही विकल्प था और वो ये था कि वो अपनी जमीनों को औने-पौने दामों इन माफियाओं को बेंच दें और ये ही हुआ भी भू-माफियाओं ने उन जमीनों को मनमाफिक सस्ते दामों पर खरीद कर बुलन्द हौंसलों के साथ अपनी योजनाओं को विस्तारित  कर दिया । 


दुर्भाग्य है कि जहां कभी वन्यजीव निर्भीक होकर विचरण करते थे अब वहां कंक्रीट के जंगल और पाश कालोनियां बनी हुई हैं , जनसंख्या दवाब और उनके बढ़ते दखल से पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं जो अत्यन्त चिंताजनक है । अब जब अलग प्रदेश बन ही गया तो विकाश भी जरूरी है , लेकिन इसका ध्यान रखना चाहिए था कि पर्यावणरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। इस प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि यहां के स्थानीय लोगों इसे अलग प्रदेश बनाने का जो संकल्प किया था उसके मूल में उनका उद्देश्य जल , जंगल और जमीन की रक्षा करने के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का बचाना भी था । प्रकृति के निःशुल्क उपहार हरियाली और सम्पदा से से परिपूर्ण हमलोग  इसका संरक्षण और संवर्घन करके देश में मिसाल बन सकते थे , उदाहरणतयाः चिपको आंदोलन के जरिये कुछ प्रयास भी हुये थे । आज भी हरे -भरे पेड़ों के कटान और सरकारी  वन सम्पदा और भूमि पर जिस गति से अतिक्रमण हो रहे हैं  यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण तथा आने वाले कल को अवश्य प्रभावित करने वाला है । वन बिभाग के लिये यह अतिक्रमण किसी कोढ़ से कम नही हैं और बीमार सिस्टम इस कोढ़ पर खाज बन गया नतीजा ये है कि  कई अतिक्रमण के मामले बिभाग के सज्ञान में आने के बाद दबा दिये जाते हैं। ये कैसी विडंबना है कि कई जगह राजस्व रिकाार्डों में वन व सरकारी भूमि अन्य खातेदारों के नाम पर दर्ज कर रीदी गई और बाकायदा उन जमीनों की खरीदफरोख्त की जा रही है जो कि वन अधिनियमों के खिलाफ है ।अब तो आलम ये है कि देहरादून और उसके आसपास की सरकारी जमीनों पर कई रसूखदारों के कब्जों की खबरें भी हवा में तैर रही हैं अब ये या तो उन रसूखदारों का खौफ है या फिर संलिप्तता कि, सम्बन्धित अधिकारी इसकी जांच करवाने से भी कतराते हैं । वन अधिनियमों के तहत वनों को बचाने के लिये हमारे पास कई हथियार हैं परन्तु भृष्ट व्यवस्था में इच्छाशक्ति की कमी के चलते सब चैपट कर दिया है ।



      अकेले वन बिभाग के प्रयासों से वन क्षेत्रों का बचाया जाना बहुत मुश्किल सा है इसके लिये जन सहभागिता की परम आवश्यकता है । उत्तराखंड राज्य सरकार ने दिनांक 21 नवम्बर 2019  के द्वारा ‘वन’ की नई परिभाषा जारी  कर दी थी जिसे केन्द्रीय वन , पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय भारत सरकार द्वारा वन संरक्षण अधिनियमों के विपरीत पाते हुये अमान्य करार कर दिया गया । यदि राज्य सरकार द्वारा पारित उक्त दिनांक  21 नवम्बर 2019  का शासनादेश लागू हो जाता तो  काफी बड़ी मात्रा में राज्य की सरकारी तथा वन भूमि का अस्तित्व समाप्त होने के साथ साथ हरियाली का नष्ट होना सुनिश्चित था । हमें यह नही भूलना चाहिये कि जंगल बनाने में , चाहे वह बहुत ही छोटे क्षेत्रफल में ही क्यों न हो, सदियां लग जाती हैं और उजाड़ने के लिये एक  दिन ही काफी है । प्रकृकृति को सवंवारने में मनुष्य का हजारों सालों से सम्बन्ध है यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य  का जीवन ही पेड़ों पर निर्भर करता है और पेड़ों का जीवन मनुष्य पर , ...यदि हम अभी भी नही जागे  तो प्रकृकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा और  इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठायाा गया तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी पर  स्वयं  अत्याचार करने के दोषी ठहराये जायेंगे लिहाजा हमें इस पाप से बचना  ही होगा ।


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