उत्तराखंड का दो राजधानियां बनाने का फ़ैसला कितना व्यावहारिक है…


 जय सिंह रावत


बीते दिनों गैरसैंण को उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया गया है. क़रीब पचास करोड़ से भी अधिक क़र्ज़ के तले दबे उत्तराखंड में जहां कर्मचारियों का वेतन भी ऋण लेकर दिया जा रहा है, वहां सरकार के दो राजधानियों को चला सकने के फ़ैसले पर सवाल उठना लाज़मी है.


 


एक सर्वेक्षण एजेंसी द्वारा अपने एक सर्वे में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को देश के सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में दूसरे स्थान पर रखे जाने के ठीक चारदिन बाद उत्तराखंड सरकार ने गैरसैंण (भराड़ीसैण) को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने की घोषणा की पुष्टि के लिए अधिसूचना जारी कर दी.


 


यह घोषणा भी भराड़ीसैण में विधानसभा के शीतकालीन सत्र में उस समय की गई थी जबकि राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें चरम पर पर थीं, जो कोरोना महामारी के संकट से ही थम सकीं थीं. ऐसी परिस्थितियों में ग्रीष्मकालीन राजधानी को लेकर सरकार की नीयत पर सवाल उठना स्वाभाविक ही है.


 


कुछ ही दिन पहले तक उत्तराखंड में कोराना मरीजों की संख्या 50 से कम चल रही थी और अधिकांश जिलों में मरीजों की संख्या शून्य थी. अब ये 1600 से ऊपर है. अगर संक्रमितों की संख्या 25 हजार तक पहुंचने की स्वयं मुख्यमंत्री की भविष्यवाणी को गंभीरता से लें, तो परिस्थितियां कहीं अधिक गंभीर हो सकती हैं.


 


ऐसी स्थिति में कोरोना के मोर्चे पर डटे रहने के बजाय ग्रीष्मकालीन राजधानी का शिगूफा छेड़ना भराड़ीसैण को राजनीतिक ढाल बनाने का प्रयास नहीं तो और क्या है?


 


इस मामले में सरकार अगर सचमुच गंभीर होती तो मार्च में इसकी घोषणा के साथ ही अधिसूचना भी जारी कर देती. मीडिया द्वारा इस मुद्दे को जिस तरह प्रचारित किया जा रहा है वह महामारी के संकट से तो ध्यान भटकाने जैसा लग रहा है.


 


पहाड़ की राजधानी पहाड़ में होना एक बेहद भावनात्मक मुद्दा है. यह हिमालयी राज्य है और इसकी विशेष भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए इस पहाड़ी राज्य की मांग उठी थी और इसके लिए तीन दर्जन से अधिक लोगों ने अपनी जानों की कुर्बानी दी थी.


 


यही भावनात्मक कारण है कि राजनीतिक दलों के ऐजेंडे में गैरसैंण प्रमुखता से रहता आया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पहाड़ के लोग अपनी पहचान के लिए जितने भावुक और विकास के लिए जितने लालायित हैं, वे नादान होंगे.


 


अगर ऐसा होता तो राज्य गठन के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) के प्रत्याशी की उसी कर्णप्रयाग क्षेत्र में जमानत जब्त नहीं होती. उस समय उक्रांद प्रत्याशी को 11 सौ से कम मत मिले थे, जबकि गैरसैंण उक्रांद का मुख्य मुद्दा रहा है.


 


इसके बाद कांग्रेस सरकार ने सबसे पहले वहां 3 नवंबर 2012 को कैबिनेट की बैठक कर अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी. उसके बाद 9 जून से 12 जून 2014 तक वहां विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र टेंटों में चला. वहां दूसरा सत्र 2 नवंबर 2015 से चला.


 


फिर कांग्रेस के ही कार्यकाल में 2016 में 17 एवं 18 नवंबर को गैरसैंण के निकट ही भराड़ीसैण में विधानसभा सत्र नवनिर्मित विधानसभा भवन में आयोजित हुआ. वहां भवन आदि पर 100 करोड़ से अधिक की राशि भी कांग्रेस सरकार ने ही खर्च की थी. इसके बावजूद 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को प्रदेश की 70 में से केवल 11 सीटें मिलीं और स्वयं हरीश रावत एक नहीं बल्कि दो सीटों पर चुनाव हार गए.


 


अलग उत्तराखंड राज्य के संघर्ष में उक्रांद की नेतृत्वकारी भूमिका थी, इस राजनीतिक दल का गठन ही अलग राज्य की लड़ाई लड़ने के लिए हुआ था. फिर भी पहले चुनाव में उसे 70 में से मात्र 4 सीटें मिलीं. जाहिर है कि पहाड़ के लोग भोले कहे जरूर जाते हैं, मगर राजनीतिक रूप से नादान हरगिज नहीं हैं.


 


लेकिन सवाल उठता है कि क्या गैरसैंण में एक राजधानी के बतौर काम किया जा सकेगा? राजधानी का मतलब केवल कुछ दिन का विधानसभा सत्र नहीं होता. जिस भराड़ीसैण में मार्च में आयोजित बजट सत्र के पांचवें दिन ही मुख्यमंत्री समेत भाजपा के 56 में 39 विधायक और 9 मंत्री ठंड के डर के चलते वापस देहरादून आ गए थे, वहां आला अफसरों की लंबी-चौड़ी फौज पूरे सरकारी तामझाम के साथ पहुंचकर काम कर पाएगी?


 


अगर यह सरकार का कोई राजनीतिक पैंतरा नहीं है तो वहां जम्मू और कश्मीर की जैसी व्यवस्था करने के लिए 6 महीनों के लिए समूचा सचिवालय स्थापित करना होगा और कार्यालयों के साथ ही हजारों अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए परिवार समेत आवासीय व्यवस्था भी करनी होगी.


 


इसके लिए पहले वहां समस्त सुविधाओं से युक्त एक टाउनशिप विकसित करनी होगी. वर्तमान में 70 विधायकों और 12 सदस्यीय मंत्रिमण्डल के अलावा विधानसभा का 332 सदस्यीय स्टाफ है. अगर सचिवालय प्रशासन भी वहां ले जाया गया, तो मुख्य सचिव जैसे आला अधिकारियों समेत कुल 1,854 अधिकारियों और कर्मचारियों के कार्यालय और कम से कम आधा दर्जन श्रेणियों के आवास की व्यवस्था करनी होगी.


 


राजधानी बिना पुलिस मुख्यालय के नहीं चलती, इसलिए वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों समेत हजारों पुलिसकर्मियों के लिए भी वहां व्यवस्था करनी होगी. कम से कम विधानसभा सत्र के दौरान तो सभी विभागों के मुखियाओं का राजधानी में रहना अनिवार्य होता है.


 


वर्तमान में प्रदेश में 63 विभाग, 7 निदेशालय और बोर्ड, निगम और प्राधिकरणों समेत सरकारी संस्थाओं की संख्या 22 है. राजधानी चयन के लिए गठित दीक्षित आयोग ने वहां लगभग डेढ़ लाख की आबादी वाली टाउनशिप के लिए ही कम से कम 960 हेक्टेयर जमीन की जरूरत बताई थी.


 


आयोग के अनुसार, सरकारी कार्यालयों और आवासों के लिए ही 500 हेक्टेयर और कम से कम 360 हेक्टेयर की जरूरत बताई थी, जबकि सरकार अब तक यहां केवल 201.54 हेक्टेयर भूमि का ही अधिग्रहण कर पाई है.


 


इससे पहले जून 2019 मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने गढ़वाल कमिश्नरी के मुख्यालय पौड़ी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर कमिश्नरी स्तर के अधिकारियों को पौड़ी में तैनात करने का वादा किया था, लेकिन कमिश्नर या डीआइजी को बिठाना तो रहा दूर उस कृषि विभाग को वापस पौड़ी नहीं भेजा जा सका जो पौड़ी से खिसककर देहरादून आ गया था.


 


ऐसी स्थिति में प्रदेश के आला अफसरों को भराड़ीसैण में बिठाने की बात करना ही शेखचिल्ली की घोषणा जैसा है. फिर 50 हजार करोड़ से भी अधिक कर्ज के बोझ से दबे उत्तराखंड में जहां कर्मचारियों का वेतन भी कर्ज लेकर दिया जाता है, वहां दो-दो राजधानियों की सोच वैसे ही व्यावहारिक नहीं है.


 


वर्तमान में महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर तथा हिमाचल प्रदेश की धर्मशाला में हैं, मगर इन दोनों जगहों से शासन चलाने के बजाय वहां केवल सप्ताहभर के लिए विधानसभा का शीतकालीन सत्र ही चलता है. जम्मू-कश्मीर में दो राजधानियां चलाना भौगोलिक और प्रशासनिक मजबूरी है.


 


जहां तक आंध्र प्रदेश का सवाल है तो वहां भी राजनीतिक कारणों से प्रदेश की राजधानी अमरावती और विजाग के बीच झूल रही है. कोरोना बीमारी के महासंकट के कारण प्रदेश क्या, देश की अर्थव्यवस्था ही जर्जर अवस्था में पहुंच चुकी है, ऐसे में दो राजधानियों का यह खेल खेलना ही बचकाना है.


 


हिन्दी वैब पत्रिका ‘द वायर‘ से साभार


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