कविता-‘मुझसे जले’
शिवम अन्तापुरिया
कोई दीपक बनकर मुझसे जले
हम उज़ाले में उनके निखर जाएंगे
चाँद की चाँदनी अब शहर है मेरा
हम उसी के उज़ाले में ढल जाएंगे
कोई दीपक बनकर मुझसे जले
हम उज़ाले में उनके निखर जाएंगे
गाँव और वो शहर की थी गलियां मेरी
जिनपे चलते थे पग मेरे दौड़े-दौड़े
आजकल अब वो दिखती नहीं है वहाँ
बिना उसके वहाँ हम न रह पायेंगे
कोई दीपक बनकर मुझसे जले
हम उज़ाले में उनके निखर जाएंगे
मान जाए जरा गर वो बात मेरी
चाँद की चाँदनी से भी नहलाएंगे
साथ दो तुम मेरा गर अभी भी कहीं
जमीं पर तारे भी हम ले आएंगे
कोई दीपक बनकर मुझसे जले
हम उज़ाले में उनके निखर जाएंगे
है हवा भी मेरे साथ में अब नहीं
वरना तूफ़ानों से हमतो टकराएंगे
कोई दीपक बनकर मुझसे जले
हम उज़ाले में उनके निखर जाएंगे
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