हर व्यक्ति का नैसर्गिक अघिकार है ‘मानव अधिकार’
सलीम रज़ा
सर्वप्रथम देशवासियों को राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं। राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस वो है जिसमें हर व्यक्ति को आजादी,स्वतंत्रता और सम्मान का अधिकार प्राप्त है, लेकिन आज जो भी सूरते हाल आप सबके सामने है उसमें आप कितना महसूस कर रहे हैं कि आपके अधिकार,सम्मान,स्वतन्त्रता सबकुछ सुरक्षित हैं? क्या आपके अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है? जरा आईए नज़र डालते हैं एम.ए.सईद मानव-अधिकार को लेकर क्या कहते हैं,‘मानव अधिकार का संबंध व्यक्ति की गरिमा से है एवं अतमसम्मान भाव जो व्यक्तिगत पहचान को रेखांकित करता है तथा मानव समाज को आगे बढ़ाता है’ आज के दौर और आज की सियासत ने मानव अधिकारों का चीरहरण कर दिया है आज लोकतंत्र में मानव-अधिकार कितने सुरक्षित हैं हमें थोड़ा सा पीछे जाने की जरूरत है। साल 2019 यानि पिछले साल मानव अधिकार दिवस का विषय रखा गया था ‘ युवाओं को अब मानव-अधिकारों के लिए काम करने और आगे बढ़ने की जरूरत है’ लेकिन शायद आपको ये बात याद हो तो ठीक है दिल्ली में एक तंग गली में चल रहे एक कारखाने में आग लगने से जो मजदूर जले हताहत हुये उन्हें मानव-अधिकार के तहत क्या मिला? जो मजदूर अपनी जान को जोखिम में डालकर काम करते हैं क्या उनके कोई अधिकारं नहीं है?ं जबकि मानव- अधिकार का मूलभूत नियम है कि कानून के सामने सब बराबर हें चाहें अमीर हो या गरीब हर व्यक्ति को सुरक्षा का समान अधिकार हासिल है। लेिकन ऐसा लगा कि गरीब होना भी एक अभिशाप है आपको ऐसा नहीं लगता कि गरीबी ने इन मजदूरों के अधिकारों को छीन लिया था। दूसरी एक बात जो मेरे दिल को बहुत ज्यादा आघात पहुंचाती है वो ये कि देश के ज्यादातर राज्यों में ईंट के भट्टे देखे जा सकते हैं और ये भी देखा और सुना गया है कि इन भट्टों पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर गुलाम बनकर रहते हैं। मानव-अधिकार के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता गुलामी शब्द क्या है गुलामी वो है जो कोई भी वयक्ति अपनी मर्जी के खिलाफ काम करने पर विवश हो जाये। हमारे देश में एक सौ तीस करोड़ से ज्यादा जनसंख्या में तकरीबन एक करोड़ 70 लाख से ज्यादा लोग गुलाम बनकर काम करने को मजबूर हैं, इनकी जिन्दगी की किस्मत का फैसला इन काम करने वालों के मालिक ही करते हैं तो ये काम करने वाले गुलाम की श्रेणी में आते हैं ऐसे लोग आधुनिक युग के गुलाम कहे जा सकते हैं।
हमें ये सोच कर आतमग्लानि होती हे कि दुनिया भर के देशों में भारत में ऐसे लागों की तादाद ज्यादा है। आपको मालूम है कि मानव-अधिकार का संबंध किससे है तो ये बात जान लीजिए कि मानव-अधिकार का संबंध मानव-अधिकार सूचकांक यानि हयूमन फ्रीडम इन्डेक्स से है आपको जानकर अफसोस होगा कि 2018 में आई एक रिपोर्ट में 162 देशों की सूची में भारत 110वीं पायदान पर था अब आप खुद ही अंदाजा लगा लीजिए कि इंसान को आपके देश में कितनी आजादी है। अगर हम ताजा आंकड़ों पर ध्यान दें तो मौजूदा साल में ये रेंकिंग सुधर कर 189 देशों में एक पायदान ऊपर चढ़कर 129 नम्बर पर पहुंच गई है इसका मतलब ये है कि भारत औसत आय के मामले में बेहतर हालात में आया है लेकिन अभी भी हमारा देश मानव-अधिकार के मामले में पीछे ही है। एक भारत ही तो है जिसके सिर पर सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गौरव हासिल है लेकिन आजादी के 73 साल बाद भी हमारे देश के अन्दर हमारी जनता को हमारी सरकार बुनियादी अधिकार देने की सिर्फ मंचों पर ही बात करती है। अगर मैं ये कहूं कि ये सारी बातें सरकार और सरकार के नुमांईदों के लिए किताबों तक ही सीमित हैं तो शायद गलत नहीं होगा। हमारा देश इकलौता ऐसा देश है जहां चुनावी सीजन या फिर खास दिवसों पर मानव-अधिकारों की दुहाई देने वाले चुन-चुनकर मुद्दों को उठाकर जनता का दिल भरते हैं क्या आपको ये नहीं लगता कि ये लोग सिर्फ मानव-अधिकारों का इस्तेमाल अपनी सियासत चमकाने के लिए करते हैं? हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि मानव अधिकार प्रकृति की तरफ से दिया गया अधिकार है लिहाजा समय तथा हालातों में परिवर्तन होने के बाद भी अधिकारों के सवरूप में कोई खास बदलाव नहीं आता इसीलिए मानव-अधिकारों को सवभाविक अधिकार भी कहा जाता है।
अधिकारों से इंसान को शोषण और अत्याचारों से निजात मिलती है इन अधिकारों से इंसान को स्वतंत्रता की गारंटी सुनिश्चित होती है, लिहाजा मानव-अधिकारों की रक्षा करना देश के हर राज्य की गारन्टी होती है फिर तो ये बात आईने की तरह साफ है कि एक नियंत्रण संस्था के तौर पर राज्य का ये दायित्व बनता है कि वो मानव-अधिकारों की रक्षा करे। प्राकृतिक अधिकारों से ही मानव-अधिकारों की व्यवस्था निकली है ये ही वजह है कि मानव-अधिकार नैतिकता पर आधारित है, इसलिए उसका उल्लंघन किया जाता है तो वो प्रकृति और समस्त मानव जाति के खिलाफ किया गया अपराध माना जाता है लिहाजा इस अपराध से बचने के लिए मानव-अधिकारों की हिफाजत करना सभी का कर्तव्य है। अब देखिये भारत सरीखे इतने बड़े लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने और रखने की आजादी है लेकिन फिर भी सरकारें मनमाने तरीके से मानव-अधिकारों का हनन करने से नहीं चूकती जबकि देश के हर इंसान को ये अधिकार प्रदत्त है कि वो शासक वर्ग की सत्ता पर अपना नियंत्रण रखे जिससे शासक अपनी मनमानी से शासन नहीं कर सके लेकिन ये अधिकार किसके पास है ?आप सत्ता का विरोध करते हैं तो आपका रास्ता अंधेरी कोठरी की तरफ जाता है। हालांकि भारत में मानव-अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के तहत राष्ट्रीय मानव-अधिकार आयोग का गठन और राज्य मानव-अधिकार आयोगों के गठन की व्यवस्था करके मानव-अधिकारों के उल्लंघन से निपटने के लिए एक मंच स्थापित किया गया था। आप जानते हैं कि राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग देश की सर्वोच्च संस्था के साथ-साथ मानव-अधिकारों का लोकपाल भी है, इसके अध्यक्ष उच्च-न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश होते हैं। राष्ट्रीय मानव-अधिकारों के ग्लोबल एलाईंज का एक हिस्सा है और उसके साथ-साथ यह एशिया पेसेफिक फोरम का संस्थापक सदस्य भी है इसे मानव-अधिकारों के संरक्षण और संवर्द्धन का अधिकार प्राप्त है। ये तो वो बात है जो देश का हर नागरिक अपना सीना कूटकर कहता है कि हमारे अधिकारों का हनन हो रहा है जरा नजर दौड़ाते हैं उन लोगों पर जो मानव द्वारा मानव-अधिकारों का हनन कर लेते हैं और फिर मानव-अधिकारों की दुहाई देते हुये नजर आते हैं।
दरअसल भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है जिसके अन्दर सभी को उनके धर्मानुसार आजादी है अब आप देख ही रहे होंगे कि आये दिन सांप्रदायिक दंगे भड़कते हैं उनके पीछे वजह क्या है उनके पीछे सिर्फ ये ही एक वजह है कि वो इसी स्वतंत्रता का फायदा उठाते हैं। आपको ऐसा लगता है कि इससे सिर्फ एक धर्म के लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ जी नहीं अगर आप ये सोच रहे हें तो आप गलत हैं दरअसल ये संप्रदायिक दंगे जो धार्मिक रंग चढ़ाकर किये जाते हैं उससे उन सभी लोगों के मानव-अधिकार आहत होते हैं जो इस घटना के शिकार होते हैं यहां तक कि उनका इस बात से कोई लेना देना नहीं होता है, और इसके भुक्त-भोगी मानव-अधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाता है लेकिन उसकी दरख्वास्त फाईलों में कैद होकर क्यों रह जाती है? क्यों सिर्फ खानापूर्ति करी जाती है ?क्यों कागजों का पेट भरा जाता है? तो आपको इस बात का संज्ञान लेना चाहिए कि सियासी पंजे के प्रहार से आयोग चारो खाने चित्त नजर आता है क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकारें आयोग की सिफारिशें मानने के लिए बिल्कुल बाध्य नहीं हैं ये ही वजह है कि हर राज्य में बने मानव-अधिकार आयोग सत्ता के झंडाबरदारों के सामने नतमस्तक है इसीलिए ये प्रभावी ढंग से काम नहीं कर सकता । इये तो सिर्फ जनता को दिखावटी राहत का मरहम लगाने के लिए अस्पताल बनाया गया है जिसमें न दवा होती है और न दुआ। इंसानी जिन्दगी से जुड़े सभी कार्य जिससे वो प्रताड़ित होता है चाहे समाज से हो या फिर सरकार से मानव-अधिकार आयोग उनकी बात सुनने का अधिकारी है जहां फरियाद और फरियादी दोनों को जाने का अधिकार तो है लेकिन ये बात वो भूल जाता है कि जहां वो अपना मसीहा समझकर जा तो रहा है जिसके कान तो हैं मगर जुबान नहीं है। बहरहाल ये तो सभी जानते हैं कि आये दिन किसी न किसी बात को लेकर लोग जूलूस की शक्ल में सड़कों पर निकल पड़ते हैं चाहें वो किसी की अस्मिता का मामला हो चाहें रोज़गार का चाहें नौकरी से निकाले जाने का मामला हो या फिर शासन-प्रशासन द्वारा प्रताड़ित करने का मामला हो ये कुछ कारण हैं जो मैने गिनाये लेकिन मानव से संबंधित बहुत सारे मामले हैं जो आयोग के दायरे मे आते हैं लेकिन इन्हें गंभीरता के साथ नहीं लिया जाता, इससे तो ये बात अपने आप साफ हो जाती है कि आयोग अपने उद्देश्यों को पूरा करने मे खुद अक्षम है ? ये ही वजह है कि आयोग की करगुजारी पर भी सवालिया निशान लग चुका है ऐसे में तो इस बात को कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हर साल मनाये जाने वाले इस दिवस की महत्ता क्या है? क्यों इस दिवस को मनाकर प्रताड़ना और अपने अधिकारों के हनन का दंश झेल रहे लोगों के जख्मों को कब तक कुरेदा जायेगा। अन्त में यक ही बात कहना चाहूंगा या तो इसकों और भी ज्यादा प्रभावी बनाया जाये या फिर निष्प्रभावी संस्था मान लिया जाये । आज भी एक सवाल हवा में तैर रहा है कि देश का आम नागरिक जिन सम्स्याओं का दंश झेल रहा है क्या राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग उनकी समस्याओं का हल निकाल पाने में कामयाब हुआ या यूं कह लीजिए क्या मानव अधिकारों की रक्षा कर पाने में आयोग सफल हुआ है ये वो सवाल है जिसका समाधान भविष्य के गर्भ में है।
Sources: Saleem raza
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