आज भी लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं महिलाऐं
सलीम रज़ा
हम अपनी मानसिकता को क्यों नहीं बदल पा रहे हैं ? क्या इन सारी बातों से हमारा कोई सरोकार नहीं है, मान भी लिया जाये कि सरोकार होता तो आज के दौर में महिला और प्रकृति दोनो ही खतरे में नहीं होतीं। आज बाजारबाद की दुनिया में बाजार ही समाज के सारे नियमों को तय करता है लेकिन बाजार का अपना कोई नियम नहीं होता है। अगर पनप रहे लैंगिक भेदभाव की बात करें तो बाजार ने लैंगिक भेदभाव की बुनियाद को और भी मजबूत किया है। दुनिया का हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति,धर्म,समुदाय,लिंग या देश का क्यों न हो सब बराबर हैं, खासतौर से महिलाऐं। वैसे तो भारत पुरूष प्रधान समाज है लेकिन देखा ये जा रहा है कि ये मिथक टूट सा गया है क्योंकि अब पुरूष महिलाओं की हौसला अफजाई करते नजर आते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद एक बात जो सबसे ज्यादा सुनी जा रही है कि जबसे महिलाऐं शिक्षित और आत्मनिर्भर हुई है तब से परिवार और समाज के अन्दर विघटन जैसे हालात पैदा होते जा रहे हैं। खैर जहां महिला की बात हो वहां सभी धर्मों को नारी सम्मान की बात करनी चाहिए। सत्य को किसी भी कीमत में झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि सत्य सदैव कड़वा होता है। इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि इंसानी जीवन के विकास के लिए महिला की जवाबदेही तय है। इस नजरिये से देखा जाये तो इंसान को मुकम्मल और उसके अस्तित्व को बनाये रखना उसकी जिम्मेदारी है तो इस लिहाज से महिला ही सवोैच्च रही है। भले ही महिला आजाद हो या पराधीन लेकिन जिस तरह से मानव के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जितना पुरूष उत्तरदायी है उतना ही महिलाओं का योगदान है, ऐसे में नारी और पुरूष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हुये। मैं इतना विस्तार से क्यों कह रहा हूं ? क्या इसकी इजाजत है ? कहीं ऐसा न हो इसको लेकर बहस और विवाद के दरवाजे खुल जायें धर्म वो है जिससे संस्कार,रस्मो.रिवाज बाहर निकलकर आते हैं जिसका अनुसरण और उसका पालन करना हर धर्म के व्यक्ति को अनिवार्य होता है।
अब जब धर्म के अनुसार इंसान चलता है तो जाहिर सी बात है कि वो धर्म के प्रति समर्पण भाव रखता है और ये अतिवृद्धि उसे अंधविश्वास और अंधश्रद्धा की तरफ ले चलती है फिर चाहे उसे अपना अस्तित्व भी कुर्बान क्यों न करना पड़े फिर ये बात सच ही हुई कि इंसान धर्म की आड़ लेकर निरंकुशए और बर्बरता का माहौल लेकर उतर जाता है। धर्म को जानिए धर्म का ताल्लुक ही कर्म से है धर्म एक दार्शनिक सोच नहीं है वल्कि एक निश्चित विधान है धर्म के लिए आप अपने हिसाब से परिभाषा नहीं दे सकते क्योंकि धर्म को परिभाषा में बिल्कुल भी बांधा नहीं जा सकता। इसे बहस और वाद विवाद का मुद्दा बना लेने से उसके वास्तविक स्वरूप को न तो समझा जा सकता है और न जाना जा सकता है। हर धर्म में नारी केी समानता की बात भले ही करी जाती हो लेकिन जहां स्त्रियों के प्रति रूख की बात आती है वहां पर समानता की बात उपेक्षा का दंश झेलती है। धर्म को अपने अपने हिसाब से परिभाषित करके नारी को उपभोग का सामान बनाकर रख दिया जिसके चलते नारी के विकास की बात करना सिर्फ धर्म ग्रंथों के पन्नों तक सिमट कर रह गई है। आज नारी की जो दशा है वो मनु स्मृति के श्लोक से बिल्कुल उलट है जिसमें कहा गया है कि नारी को सम्मान मिलना चाहिए जिस घर मे नारी को सम्मान और उनकी अपेक्षानुरूप पूर्ति की जाती है उस घर पर देवताओं की कृपा बरसती है। लेकिन आज जो हालात नारी के हैं उसे देखकर ये ही लगता है कि इंसान के संस्कारों में नारी के सम्मान के लिए सिर्फ सिर्फ दिखावा है लेकिन मनन करने की इच्छा शक्ति कमजोर ही है।
घटता लिंगानुपात इस बात का द्योतक है कि नारी के प्रति पुरूष की सोंच कितनी मजबूत है। क्या ये बात हलक से नीचे उतरती है कि आज के कमप्यूटर, विज्ञान,प्राद्यौगिकी के युग में भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को तरजीह देने का काम भी पुरूष की मर्जी के खिलाफ नहीं हो सकता नारी की कहानी और सम्मान के लिए ये एक काला धब्बा है। अगर आज भी नारी को वो सम्मान और अधिकार नहीं दिये जाते तो ये पुरूषों की मानसिक कुंठा और अपने आपको प्रधान कहे जाने की झूठी पहचान को ढोना मात्र है। आजकल महिलाओं के साथ दुराचार,बलात्कार,हत्या जैसे जधन्य अपराधों की बाढ़ सी आ गई हे जिसे देखकर लगता है कि सशक्त पुरूष अपनी काम पिपासा में अपने धर्म ओर संस्कारों की तिलांजली दे रहा है। ये सच है कि आज पुरूष ने महिला को मात्र अपने उपभोग का साधन और संतान पैदा करने की मशीन तक ही सीमित रखा है। आज के माहौल में पुरूषों के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महिलाओं की मर्यादा को तार.तार करने वाले विधान और संस्कार को ही महिला अपना धर्म समझने लगीं इस अज्ञानता के लिए भी पुरूष ही दोषी हैं। कितना भी समाज का माहौल बदले लेकिन महिलाओं के हालात जस के तस है आज भी महिलायें पुरूषों के अत्याचार ओर जुल्म का कोपभाजन बन रही है महिलाओं को यदि अपनी आजादी और अपने सम्मान को बचाना हे तो उसे धर्म के बन्धन से निकलकर बाहर आना होगा। महिलाऐं अपने ऊपर हो रहे भेदभाव पूर्ण रवैये, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार और उन्हें रीति रिवाजों संस्कारों की बेड़ी में बांधकर रखने से उन्हें गुस्सा होना लाजमी है लेकिन उनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी ने उन्हें असहाय बना दिया है जिसकी वजह से वो ये सब सहन करने को मजबूर है।
अब तो महिलाओं के बारे में स्थिती साफ होती जा रही है कि महिलाओं की आजादी,समानता और पहचान को प्रशस्त बनाने के रास्ते में धर्म बीच में आ ही जाता है। महिलाओं को सम्मान मंचों या कोरे भाषणों से नही दिलाया जा सकता वल्कि हमें अपनी सोंच में बदलाव लाना पड़ेगा और ये दिखाना होगा कि समानता के लिए महिलाओं को गुलामी और उनके ऊपर अधिकार जमाने वाली सोंच को खत्म किया जाये । बहरहाल आज हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है जहां आज पूरी दुनिया में महिलाऐं अपनी मंजिल खुद ही तलाशने में लगी हैं वे इतनी आत्मनिर्भर हैं कि अपने बारे में वे खुद ही फैसला लेती हें वो अब पुरूषों पर डिपेन्ड नहीं हैं। दूसरी तरफ महिलाओं को लेकर पुरूष भी अपना दायित्व समझने लगे हैं लेकिन आज जब सरकार महिलाओं को आगे लाने के अपने अथक प्रयास कर रही है फिर भी ग्लोबल जैन्डर गैप इन्डैक्स में भारत का मौजूदा स्थान बता रहा है कि अभी भी महिला पूरी तरह से पुरूषों के अधीन ही है। महिला समाज की शिल्पकार है उसके कई रूप हैं हम उसके जिस रूप को भी देखें तो हर रूप में श्रद्धा झलकती है फिर उसके साथ अमानवीय व्यवहार कैसा ? लिहाजा मंचों पर ब्याख्यान देने भर से ही महिलाओं को स्थान और सम्मान नहीं दिलाया जा सकता या फिर एक दिन के इस दिवस से महिलाओं की स्थिति में सुधार होने वाला है नहीं उसके लिए हमें अपनी मानसिकता में बदलाव लाना पड़ेगा। मुझे मुशी प्रेमचन्द जी की पंक्तिया याद आती हैं उन्होंने कहा था ‘स्त्री पुरूष से उतनी ही श्रेष्ठ है जितना प्रकाश अंधकार से’ लिहाजा हमें ये स्मरण रखना चाहिए कि महिला उपभोग की वस्तु नहीं है वल्कि समाज की शिल्पकार है।
हम अपनी मानसिकता को क्यों नहीं बदल पा रहे हैं ? क्या इन सारी बातों से हमारा कोई सरोकार नहीं है, मान भी लिया जाये कि सरोकार होता तो आज के दौर में महिला और प्रकृति दोनो ही खतरे में नहीं होतीं। आज बाजारबाद की दुनिया में बाजार ही समाज के सारे नियमों को तय करता है लेकिन बाजार का अपना कोई नियम नहीं होता है। अगर पनप रहे लैंगिक भेदभाव की बात करें तो बाजार ने लैंगिक भेदभाव की बुनियाद को और भी मजबूत किया है। दुनिया का हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति,धर्म,समुदाय,लिंग या देश का क्यों न हो सब बराबर हैं, खासतौर से महिलाऐं। वैसे तो भारत पुरूष प्रधान समाज है लेकिन देखा ये जा रहा है कि ये मिथक टूट सा गया है क्योंकि अब पुरूष महिलाओं की हौसला अफजाई करते नजर आते हैं। लेकिन इन सबके बावजूद एक बात जो सबसे ज्यादा सुनी जा रही है कि जबसे महिलाऐं शिक्षित और आत्मनिर्भर हुई है तब से परिवार और समाज के अन्दर विघटन जैसे हालात पैदा होते जा रहे हैं। खैर जहां महिला की बात हो वहां सभी धर्मों को नारी सम्मान की बात करनी चाहिए। सत्य को किसी भी कीमत में झुठलाया नहीं जा सकता क्योंकि सत्य सदैव कड़वा होता है। इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि इंसानी जीवन के विकास के लिए महिला की जवाबदेही तय है। इस नजरिये से देखा जाये तो इंसान को मुकम्मल और उसके अस्तित्व को बनाये रखना उसकी जिम्मेदारी है तो इस लिहाज से महिला ही सवोैच्च रही है। भले ही महिला आजाद हो या पराधीन लेकिन जिस तरह से मानव के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जितना पुरूष उत्तरदायी है उतना ही महिलाओं का योगदान है, ऐसे में नारी और पुरूष दोनों ही एक दूसरे के पूरक हुये। मैं इतना विस्तार से क्यों कह रहा हूं ? क्या इसकी इजाजत है ? कहीं ऐसा न हो इसको लेकर बहस और विवाद के दरवाजे खुल जायें धर्म वो है जिससे संस्कार,रस्मो.रिवाज बाहर निकलकर आते हैं जिसका अनुसरण और उसका पालन करना हर धर्म के व्यक्ति को अनिवार्य होता है।
अब जब धर्म के अनुसार इंसान चलता है तो जाहिर सी बात है कि वो धर्म के प्रति समर्पण भाव रखता है और ये अतिवृद्धि उसे अंधविश्वास और अंधश्रद्धा की तरफ ले चलती है फिर चाहे उसे अपना अस्तित्व भी कुर्बान क्यों न करना पड़े फिर ये बात सच ही हुई कि इंसान धर्म की आड़ लेकर निरंकुशए और बर्बरता का माहौल लेकर उतर जाता है। धर्म को जानिए धर्म का ताल्लुक ही कर्म से है धर्म एक दार्शनिक सोच नहीं है वल्कि एक निश्चित विधान है धर्म के लिए आप अपने हिसाब से परिभाषा नहीं दे सकते क्योंकि धर्म को परिभाषा में बिल्कुल भी बांधा नहीं जा सकता। इसे बहस और वाद विवाद का मुद्दा बना लेने से उसके वास्तविक स्वरूप को न तो समझा जा सकता है और न जाना जा सकता है। हर धर्म में नारी केी समानता की बात भले ही करी जाती हो लेकिन जहां स्त्रियों के प्रति रूख की बात आती है वहां पर समानता की बात उपेक्षा का दंश झेलती है। धर्म को अपने अपने हिसाब से परिभाषित करके नारी को उपभोग का सामान बनाकर रख दिया जिसके चलते नारी के विकास की बात करना सिर्फ धर्म ग्रंथों के पन्नों तक सिमट कर रह गई है। आज नारी की जो दशा है वो मनु स्मृति के श्लोक से बिल्कुल उलट है जिसमें कहा गया है कि नारी को सम्मान मिलना चाहिए जिस घर मे नारी को सम्मान और उनकी अपेक्षानुरूप पूर्ति की जाती है उस घर पर देवताओं की कृपा बरसती है। लेकिन आज जो हालात नारी के हैं उसे देखकर ये ही लगता है कि इंसान के संस्कारों में नारी के सम्मान के लिए सिर्फ सिर्फ दिखावा है लेकिन मनन करने की इच्छा शक्ति कमजोर ही है।
घटता लिंगानुपात इस बात का द्योतक है कि नारी के प्रति पुरूष की सोंच कितनी मजबूत है। क्या ये बात हलक से नीचे उतरती है कि आज के कमप्यूटर, विज्ञान,प्राद्यौगिकी के युग में भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को तरजीह देने का काम भी पुरूष की मर्जी के खिलाफ नहीं हो सकता नारी की कहानी और सम्मान के लिए ये एक काला धब्बा है। अगर आज भी नारी को वो सम्मान और अधिकार नहीं दिये जाते तो ये पुरूषों की मानसिक कुंठा और अपने आपको प्रधान कहे जाने की झूठी पहचान को ढोना मात्र है। आजकल महिलाओं के साथ दुराचार,बलात्कार,हत्या जैसे जधन्य अपराधों की बाढ़ सी आ गई हे जिसे देखकर लगता है कि सशक्त पुरूष अपनी काम पिपासा में अपने धर्म ओर संस्कारों की तिलांजली दे रहा है। ये सच है कि आज पुरूष ने महिला को मात्र अपने उपभोग का साधन और संतान पैदा करने की मशीन तक ही सीमित रखा है। आज के माहौल में पुरूषों के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए महिलाओं की मर्यादा को तार.तार करने वाले विधान और संस्कार को ही महिला अपना धर्म समझने लगीं इस अज्ञानता के लिए भी पुरूष ही दोषी हैं। कितना भी समाज का माहौल बदले लेकिन महिलाओं के हालात जस के तस है आज भी महिलायें पुरूषों के अत्याचार ओर जुल्म का कोपभाजन बन रही है महिलाओं को यदि अपनी आजादी और अपने सम्मान को बचाना हे तो उसे धर्म के बन्धन से निकलकर बाहर आना होगा। महिलाऐं अपने ऊपर हो रहे भेदभाव पूर्ण रवैये, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार और उन्हें रीति रिवाजों संस्कारों की बेड़ी में बांधकर रखने से उन्हें गुस्सा होना लाजमी है लेकिन उनके अन्दर आत्मविश्वास की कमी ने उन्हें असहाय बना दिया है जिसकी वजह से वो ये सब सहन करने को मजबूर है।
अब तो महिलाओं के बारे में स्थिती साफ होती जा रही है कि महिलाओं की आजादी,समानता और पहचान को प्रशस्त बनाने के रास्ते में धर्म बीच में आ ही जाता है। महिलाओं को सम्मान मंचों या कोरे भाषणों से नही दिलाया जा सकता वल्कि हमें अपनी सोंच में बदलाव लाना पड़ेगा और ये दिखाना होगा कि समानता के लिए महिलाओं को गुलामी और उनके ऊपर अधिकार जमाने वाली सोंच को खत्म किया जाये । बहरहाल आज हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है जहां आज पूरी दुनिया में महिलाऐं अपनी मंजिल खुद ही तलाशने में लगी हैं वे इतनी आत्मनिर्भर हैं कि अपने बारे में वे खुद ही फैसला लेती हें वो अब पुरूषों पर डिपेन्ड नहीं हैं। दूसरी तरफ महिलाओं को लेकर पुरूष भी अपना दायित्व समझने लगे हैं लेकिन आज जब सरकार महिलाओं को आगे लाने के अपने अथक प्रयास कर रही है फिर भी ग्लोबल जैन्डर गैप इन्डैक्स में भारत का मौजूदा स्थान बता रहा है कि अभी भी महिला पूरी तरह से पुरूषों के अधीन ही है। महिला समाज की शिल्पकार है उसके कई रूप हैं हम उसके जिस रूप को भी देखें तो हर रूप में श्रद्धा झलकती है फिर उसके साथ अमानवीय व्यवहार कैसा ? लिहाजा मंचों पर ब्याख्यान देने भर से ही महिलाओं को स्थान और सम्मान नहीं दिलाया जा सकता या फिर एक दिन के इस दिवस से महिलाओं की स्थिति में सुधार होने वाला है नहीं उसके लिए हमें अपनी मानसिकता में बदलाव लाना पड़ेगा। मुझे मुशी प्रेमचन्द जी की पंक्तिया याद आती हैं उन्होंने कहा था ‘स्त्री पुरूष से उतनी ही श्रेष्ठ है जितना प्रकाश अंधकार से’ लिहाजा हमें ये स्मरण रखना चाहिए कि महिला उपभोग की वस्तु नहीं है वल्कि समाज की शिल्पकार है।
Sources:saleem Raza
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