आलेख-परिवर्तन ही प्रकृति का नियम
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
बदलाव ही प्रकृति का नियम है और यही सार्वभौमिक सत्य भी
है। इस जगत में स्थाई कुछ भी नहीं। हर रोज कुछ ना कुछ परिवर्तन होता रहता
है, कभी हमारे कर्मों से तो कभी प्रकृति की ईच्छा से।
एक
मनुष्य का जीवन जन्म से लेकर मरण तक , बारिश आने पर नए पौधों का जन्म,
चारों तरफ दिखती हरियाली, गरमियों में उसी जगह उड़ती धूल के बवंडर, तेज धूप
और लू का साया, उसी तेज़ धूप और लू से झुलसकर जलकर मरते वही पेड़ पौधे, जो
बच गए उनका एक दिन जंगल में तब्दील होना और उसी जंगल का विकास की अंधी
दौड़ में आलीशान महलों, खेतों, घरों में तब्दील होना,
आलीशान
महलों, घरों का खंडहर में बदलना और फिर इन सबकी माटी होकर माटी में मिल
जाना। सूर्य का पूर्व से निकल दुनियां को रोशन करना और उसी सूर्य का पश्चिम
में ढल कर अंधेरा कर देना।
कहते हैं जो पत्थर होता है वो नहीं बदलता लेकिन पाषाण भी हवा,पानी के थपेड़ों से कट कट कर अपनी आकृति बदलता रहता है।
अगर हमें रोज़ दाल ही खाने को मिले तब?
कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और यह जो खोना पड़ता है, वही बदलाव है।
पाषाण
युग से विकसित युग, आदि मानव से आधुनिक मानव, सभ्यताओं का बनना मिटना और
फिर बदलाव प्रकृति का नियम ना होता तो हम पत्थर हाथ में लिए शिकार कर रहे
होते और पेड़ों के पत्तो से अपना बदन ढक जंगलों में जिंगा लाला हू कर रहे
होते।
चूंकि वक्त हर पल
बदलता रहता है इसलिए बदलाव ना हो यह संभव नहीं । अपने आसपास की हर चीज,हर
मनुष्य के इर्द गिर्द हमारा एक अदृश्य वातावरण बनाया हुआ होता है और उस
वातावरण के केंद्र बिंदु में उन सबके लिए पूर्व निर्धारित हमारी अनगिनत
भावनाएं जुड़ी होती हैं, किंतु कभी कभी किसी कारण से उनमें कोई भी परिवर्तन
होता है तो स्वभाविक है कि हमारी भावनाएं आहत होगी।
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