ज्वलंत मुद्दों की पीठ पर मलिन बस्तियों की सियासत
सलीम रज़ा /
‘धरा’ पर भी हमने रहकर देखे सपने सुहाने हैं, असम्भव को भी सम्भव कर दिखाने हैं, उम्मीदों में हम हमेशा ‘शून्य’ को रखते है,ं छोड़ दिया बहुत पहले ही कुछ पास रखना इसलिए अक्सर खुशियां हम बांट दिया करते हैं (साभार)। उक्त पंक्तियों में मेरे लेख का सम्पूर्ण सार समझ में आ सकता है। कहते हैं जब मुद्दे बहुत हों और समाधान की उम्मीद कम हो तब कुछ ऐसे मुद्दों की उत्पत्ति होती है जिसकी आभा से सियासत और सत्ता की लालसा निखरने लगती है। फिलहाल उत्तराखण्ड में मिशन 2022 की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं वैसे तो प्रदेश में कोरोना गाईडलाईन लागू है जिसका पालन करना अनिवार्य है लेकिन राजनीतिक पार्टियों के लिए इसमें पूरी छूट है ऐसा प्रतीत होता है । अब चाहें भाजपा की जन आर्शीवाद रैली हो या आप की जनसंदेश यात्रा हो या फिर काग्रेस की प्रस्तावित रैली हो कोरोना गाईडलाईन की जमकर धज्जियां उड़ रही हैं और उड़ेंगी खैर सियासत में कोरोना का डर दूर-दूर तक नहीं होता है। आजकल हर सियासी पार्टी उत्तराखण्ड की जनता को लुभावने सब्ज बाग दिखाने में पीछे नहीं है हर कोई नहले पे दहला लगा रहा है ऐसे में भाजपा ही पीछे क्यों रह जाती उसने भी अपने तरकश से मलिन बस्ती का तीर छोड़ दिया है जो लगा तो ठीक निशाने पर है लेकिन उन मुद्दों के तीर चलाने में हर पार्टी कतरा रही है जिसकी असद जरूरत है। खैर ये तो सियासी फन्डे हैं जो हर पांच साल बाद सियासी छीछालेदर को साफ करने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं।
इस वक्त का ताजातरीन मुद्दा है मलिन बस्तियों की सियासत का जिसने सभी सियासी पार्टियों को अचेतन अवस्था में ला खड़ा किया है। अभी हाल में ही हमारे युवा तुर्क मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने घोषणा करी है कि 2024 तक मलिन बस्तियां नहीं तोड़ी जायेंगी यानि इन्होंने 2022 विधान सभा चुनाव और 2024 संसदीय चुनाव तक के लिए सभी के कदम इस तरफ से रोक दिये हैं, लेकिन देखना ये होगा कि तरकश से निकले इस तीर से अचेत अवस्था में पहुंचने वाली जनता को और दूसरी पार्टियां संजीवनी देकर चेतन अवस्था में ला पाती है या नहीं ये तो दीगर पार्टियों की बौद्धिक क्षमता पर ही निर्भर करेगा। तो बात करते हैं मलिन बस्तियों को लेकर । आपको बता दें कि हमारे देश में तकरीबन साठ फीसद से ज्यादा शहरों में मलिन बस्तियां देखी जा सकती हैं इन्हीं स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों को सियासी पार्टियां पालती पोषती है जिन्हें ये अपनी भाषा में मखमल में टाट का पैबन्द की संज्ञा देते हैं लेकिन इनकी सियासी महत्वाकांक्षाओं का रास्ता इन्हीं स्लम बस्तियों से होकर गुजरता है फिर भी दुर्भाग्य ये है कि चाकाचोंध भरी दुनिया का हिस्सा होने के बाद भी ये गुमनाम और अन्धेरे में क्यों हैं। अगर हम आंकड़ों पर गौर करें तो पायेंगे कि 100 के मुकाबले चालीस फीसद झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग गन्दी और बदबूदार नालियों से सटे हुई भूमि पर रहने को मजबूर हैं। आजादी के आठवें दशक में प्रवेश कर चुके भारत में इन बस्ती के लोगों को साफ पीने का पानी भी मयस्सर नहीं है दिल तब और दुःखता है जब आंकड़े गवाही देते हैं कि इन बस्तियों में जिन्दगी गुजारने वाले लोगों का लगभग 40 फीसद हिस्सा स्वच्छ पीने के जल से वंचित है और तकरीबन साठ फीसद लोंगों के घरों से गन्दे पानी के निकास का कोई बन्दोबस्त नहीं है, जो इस बात की चीख-चीख कर गवाही देता है कि इन गन्दी बस्तियों मे रहने वाले लोग विकसित समाज, सियासी गलियारों और प्रशासनिक अनदेखी का शिकार हैं।
हमारे उत्तराखण्ड में मलिन बस्तियों की सियासत को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच शतरंज की बिसात पर शह-मात का खेल चल रहा हैे लेकिन इन मलिन बस्तियों और उनमें रहने वालो लोगों का होगा क्या ये शायद कोई भी नहीं जानता है। इन बस्तियों पर जो सियासत चल रही है और इसे लेकर कांग्रेस और भाजपा जो लुका- छिपी का खेल खेल रहे हें उसे सामने लाना बेहद जरूरी है। आपको बता दें कि जहां एक ओर कांग्रेस मलिन बस्तियों को मालिकाना हक दिलाने की बात कहकर अपनी सियासत चमकाने के लिए इन बस्तियों में रहने वालो लोगों को सुनहरे ख्वाब दिखाकर अपना वोट बैंक मजबूत करना चाहती है वहीं दूसरी तरफ रिवर फ्रन्ट योजना के तहत नदियों को सजाने सवांरने के लिए इन झुग्गी-झोपड़ियों पर बुलडोजर चलाने की तैयारी भी करवा चुकी है, वहीं भाजपा भी अपनी सियासी महत्वाकांक्षा और बोट बैंक में सेंध लगाने की फिराक में हाथ-पांव मार रही है। आपको बता दें कि कांगेस ने बाकायदा इन बस्तियों के नियमतिकरण के लिए संसदीय कार्य सचिव और विधायक राजकुमार की सदारत में उत्तराखण्ड मलिन बस्ती विकास समिति का गठन किया था इससे इन मलिन बस्तियों में रहने वाले लोगों को इस बात की उम्मीद जताई थी कि उनके मकान अवैध से वैध हो जायेंगे और उनके मकान की रजिस्ट्री होकर उन्हें मालिकाना हक दे दिया जायेगा,लेकिन साबरमती नदी की तर्ज पर रिस्पना और बिन्दाल नदी के किनारों को विकसित किये जाने को लेकर मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के रिवर फ्रंट योजना के प्रस्ताव की मंजूरी देना ही सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा कर देती है ।
गौरतलब है कि इस प्रोजेक्ट के पहले चरण का सर्वे भी मुकम्मल हो चुका है जिसमें नदी के किनारे डेढ़ सौ मीटर क्षेत्र से इन बस्तियों को हटाया जाना है बाद में इसका विस्तार होना है जिसके लिए शहर में 14 हज़ार फ्लैट बनाये जाने हैं जो अब तक का सबसे बड़ा प्रोजैक्ट होगा । लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए जमीन भी चाहिए होगी और अरबों रूपये वो ऐसे हालातों में जब हमारी सरकार के पास पैसा है ही नहीं क्योंकि सरकार खुद बाजार से कर्ज लेकर खुद विभागों को सींच रही है ऐसे में इन मलिन बस्तियों का भविष्य क्या होगा किसी को पता नहीं है,लेकिन अपने सियासी फायदे के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मैदान मे डटी हैं।
बहरहाल चुनावी साल में मौजूदा सरकार ने भी मलिन बस्ती का कार्ड खेला है आपको बता दें कि उत्तराखण्ड में 60 से ज्यादा नगर निकायों में 582 मलिन बस्तियां हैं जिनमें तकरीबन सात लाख से ज्यादा वोटर हैं जो हर सियासी पार्टी के लिए किसी लहलहाती खेती से कम नहीं है जिसे काटने के लिए कांग्रेस और भाजपा एड़ी- चोटी का जोर लगा रही है। गौरतलब है कि साल 2017 में भी कांग्रेस ने इन बस्तियों के विनियमतीकरण के मुदे को उठाया था लेकिन ये तमन्ना दिल की दिल में रह गई और कांग्रेस सरकार प्रदेश से रूख्सत हो गई अब भाजपा भी कोग्रेस के पद चिन्हों पर चल पड़ी है गौरतलब है कि पहले मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने भी इन मलिन बस्तियों के विनियमतिकरण का फैसला लिया था लेकिन तकनीकी अड़चनों की वजह से त्रिवेन्द्र सरकार ने इसे आगे सरका दिया फिर मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने भी अपने पग को इस रास्ते पर बढ़ाया लेकिन इससे पहले ही वो रूखसत हो गये, अब तीसरे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने पूरे तीन साल झुग्गी-झोपड़ी को न तोड़े जाने की बात कहकर एक तरह से इन मलिन बस्तियों के लोगों और अपने वोटरों को एक तरह से अभयदान दे दिया।
बहरहाल सरकार ने सियासी महत्वाकांक्षा के चलते जिस तरह से अतिक्रमण करके अव्यवस्थित तरीके से बसी इन मलिन बस्तियों की पैरवी करी है उससे हरित एवं सुंदर उत्तराखण्ड लोगों की जुबान पर सिर्फ एक जुमले की तरह सुनाई देगा दूसरा कड़वा सच ये है कि जिस तरह से इन मलिन बस्तियों की सियासत की जा रही है उसे देखकर तो ये ही लगता है कि सरकार गरीबों के लिए आवासीय योजनाओं के क्रियान्वयन और उनके पुर्नवास की व्यवस्था करने के वजाय अवैध बस्तियों को बैधता का सर्टिफिकेट देने की तैयारी में है इससे तो ये ही नजर आ रहा है, क्योंकि सरकार साफ कर चुकी है कि किसी भी बस्ती को नहीं तोड़ा जायेगा और न विस्थापन होगा ऐसे में मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण के रिवर फंन्ट प्रोजेक्ट घूल में लठ्ठ है जिसका कोई औचित्य नहीं रह जाता ।
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