‘आप ’ की नाव पर सवार राजनीतिक भविष्य तलाशते ‘कर्नल’
सलीम रज़ा /
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखण्ड की सियासत भी विषम है , यहां का सियासी समर दिग्गजों के सियासी सफर पर विराम लगा देता है , उत्तराखण्ड में ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जहां दिग्गजों ने फर्श तो नौसिखियों ने अर्श देखा है। खैर सियासत की अंकगणित ही ऐसी है भाज्य और भाजक के अलावा शेषफल ज्यादा मायने रखता है ये शेषफल का खेल ही अबकी बार विधान सभा चुनाव 2022 में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। मैं पूर्ण विश्वास के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन इस बार ऐसा लग रहा है कि कहीं उत्तराखण्ड की सियासत का परिणाम ‘त्रिशंकु’ की तरफ तो इशारा नहीं कर रहा है। भले ही उत्तराखण्ड में भाजपा और कांग्रेस की सरकारें हर पांच साल बाद जाती और आती रहीं हों लेकिन विकल्प के तौर पर एक मात्र क्षेत्रिय पार्टी उत्तराखण्ड क्रांति दल रही है लेकिन पोलियोग्रस्त होने का दंश झेल रही ये पार्टी कभी भी अपने पैरों पर नहीं खड़ी हो पाई। अबकी बार ‘आप’ की आमद से सियासी समीकरण कुछ अलग ही नज़र आ रहा है भले ही राजनीतिक विशलेषक अपना गणित कुछ और बताते हों लेकिन ‘आप’ की धमक से राजनीतिक पार्टियों भाजपा और कांग्रेस में बेचैनी साफ दिखाई दे रही है इसे झुठलाया नही जा सकता। उत्तराखण्ड में भाजपा जहां प्रयोगवादी राजनीति की बीमारी से बच नहीं पा रही है वहीं कांग्रेस पार्टी भी अपने कुनबे की छत को दुरूस्त करने में लगी है।
भाजपा ने प्रयोग के तहत पांच साल में तीन मुख्यमंत्रियों की अदला बदली करी और आखिर में युवा नेता पुष्कर सिंह धामी की ताजपोशी करके ये संदेश देने की कोशिश करी है कि वो इस बार का चुनाव विकास के नाम पर नहीं वल्कि युवाओं के सहारे लड़ेगी , लेकिन सवाल ये उठता है कि उत्तराखण्ड की सत्तारूढ़ सरकार ने इन पांच सालों में युवाओं के भविष्य के बारे में क्या और कितना ध्यान दिया जरा देखते हैं। उत्तराखण्ड में तकरीबन 57 प्रतिशत से ज्यादा वोटर युवा है लिहाजा भाजपा के थिंक टैंक ने युवाओं पर कार्ड खेला है,े क्योकि ये युवा किसी भी राजनीतिक पार्टी का भविष्य तय करने में अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं । लेकिन सवाल ये भी उठता है कि उत्तराखण्ड में अलग-अलग विभागों में संविदा,सृजित व आउटसोर्स के लगभग 50 हजार से ज्यादा पद खाली है वहीं 14 ऐसे विभाग है जिनमें लगभग 30 हज़ार से ज्यादा पद रिक्त है। फिर बीते चार सालों में इन पदों को भरने की सरकार को सुध क्यों नहीं आयी। लेकिन मजेदार बात ये रहै कि धामी ने पद संभालते ही 22 हजार पदों पर भर्ती का कार्ड फेंककर युवाओं को रिझााने की कोशिश करी है क्योकि भाजपा को दिख रहा है कि अबकी बार का चुनाव जीतना उनके लिए कठिन है लेकिन युवाओं के दिल में पैठ बनाकर शायद चुनावी बैतरणी पार लग जाये । अब सवाल ये उठता है कि 22 हजार पदों पर भर्ती कहीं भाजपा की आदत के मुताबिक जुमला बनकर न रह जाये क्योंकि ये इतना आसान भी नहीं है। वैसे भी उत्तराखण्ड की सरकार कर्ज की आक्सीजन से सांसे ले रही है ऐसे में ये सिर्फ सपना है जो चुनावी नैया पार लगने के बाद एक ख्वाब बनकर रह सकता है।
दूसरी तरफ का्रग्रेस के पास भी अपना कुछ नहीं है लिहाजा उसने भी उत्तराखण्ड में दलित कार्ड फेंक कर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश करी है। अभी हाल में ही परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस के दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री पद की रेस में सबसे आगे हरीश रावत का बयान कि मैं 2022 मैं किसी दलित को मुख्यमंत्री बनते देखना चाहता हूं ? उनके इस बयान में ये लगा कि वो उत्तराखण्ड में निर्जीव हो रही कांग्रेस को दलित मंत्र के जरिए फिर से जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरा एक तीर से दो निशाने की बात मैंने कही थी एक तो ये कि इन्डायरेक्टली वो भाजपा के कुनबे को बिखेरने की कोशिश कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ ‘आप’ को दलित ब्रहमअस्त्र से अचेत करने की योजना बना चुके हैं। अगर हम दलित वोटों की बात करें तो उत्तराखण्ड में दलित आबादी का प्रतिशत तकरीबन 18.50 के करीब है। 2011 की जनगणना के मुताबिक प्रदेश में दलित वोटरों की संख्या तकरीबन 18,92,516 ें करीब है वहीं दलित आबादी पर्वतीय जिलों में 10 लाख से ऊपर है प्रदेश के दलित आबादी तीन मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर में ं तकरीबन 8.78 लाख के करीब है सिमें सबसे ज्यादा अलित आबादी हरिद्वार में 4.11.274 के करीब है अगर ये आंकड़े सामने रखें तो प्रदेश की दलित आबादी के सहारे हर विधान सभा सीट पर संतुलन साधने की कोशिश करी जा रही है । लेकिन ये प्रयोग कितना कारगर होगा ये कुछ समय बाद ही मालूम पड़ेगा। प्रदेश में सिर्फ नाम के सहारे जीवित रहने वाली एक मात्र क्षेत्रिय पार्टी उत्तराखण्ड
क्रांति दल अन्दुरूनी खींचतान, गुटबाजी और विरासत की सियासत से बाहर नहीिं आ पा रही है, ऐसे में उससे किसी भी तरह का जादुई चमत्कार की उम्मीद करना बेईमानी ही होगी।
अब जरा ‘आप’ की बात कर लें भले ही उत्तराखण्ड में ‘आप’ का नाप न हो लेकिन सियासी पैमाने में ‘आप’का कद साफ झलक रहा है क्योंकि उसके पास एक ऐसा मनोवैाानिक हथियार है जो मतदाता के विचार बदलने की कुव्वत रखता है। एक तो ये कि वो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तमाम अड़चनों और जिल्लतों के बाद भी एक नहीं दूसरी बार बहुमत में आकर ये साबित कर चुकी है कि आखिर ‘आप’ में कुछ तो है भले ही उत्तराखण्ड में हालात दिल्ली जैसे नहीं हैं लेकिन ‘कर्नल’कोठियाल को कमान देकर अरविन्द केजरीवाल ने उत्तराखण्ड की सियासत का समीकरण बदल तो दिया है। पूर्व फौजी कर्नल कोठियाल को सीएम चेहरा घोषित करके ‘आप’ ने भी एक नहीं कई जगह चुनावी सेंध लगाई है। ‘आप’ की चुनावी अंकगणित भाजपा और कांग्रेस से थोड़ी अलग है अपने चुनावी वायदे में: आप’ ने जहां 300 यूनिट बिजली फ्री देने की बात कही है वो प्रयोग भले ही दिल्ली का हो लेकिन हमें ये बात भी ध्यान में रखनी होगी कि उत्तराखण्ड का लगभग ज्यादातर परिवारों का कोई न कोई सदस्य दिल्ली में रहता है चाहें वो शिक्षा ग्रहण कर रहा हो या नौकरी में हो याफिर व्यापार कर रहा हो लिहाजा उत्तराखण्ड के लोगों को ‘आप’ और दिल्ली बाली पहचान मालूम है। दूसरी तरफ पूर्व फौजी ‘कर्नल’ कोठियाल के सहारे पूर्व सैनिकों की नब्ज टटोलने की भी कोशिश करी जा रही है।
भाजपा भी अक्सर उत्तराखण्ड में विभिन्न स्ट्राईकों जैसे बहुचर्चित सर्जिकल और बालाकोट स्ट्राईक के नाम पर वोट मांगती ही रही है और उसका साष्ट्रवाद का मुद्दा रंग भी लाया है वहीं उत्तराखण्ड सैन्य बहुल प्रदेश है और इस प्रदेश के हर जिले हर मुहल्ले में पूर्व सैनिक रहते हैं अन्दाजा यह लगाया जा रहा है कि अगर पूर्व सैनिक कर्नल कोठियाल की तरफ झुकते हैं तो इसका सीधा-सीधा नुकसान भाजपा को भुगतना पड़ेगा , वहीं ये भी कयास लगाये जा रहे हें कि अगर भाजपा और कांग्रेस में टिकट बटबारे को लेकर रार हुई तो भाजपा और कांग्रेस के संभावित उत्तीदवार ‘आप’ का दामन थाम सकते हैं । जहां एक ओर कांग्रेस मुंगेरी लाल के हसीन सपनों में खोई हुई है कि जो लोग भाजपा से नाराज होकर बेगाने होते हैं तो वो का्रग्रेस का कुनबा भारी करेंगे तो ये एक मिथक होगा। अगर कर्नल कोठियाल उत्तराखण्ड की जनता में ये संदेश देने में सफल रहे कि ‘आप’ आपके हित के लिए अच्छा करेगी तो भाजपा से रूठे लोग कांग्रेस की बजाए ‘आप’ का कुनबा भारी कर सकते हैं ,ऐसे हालातों में नुकसान भाजपा और कांग्रेस दोनों को उठाना पड़ सकता है। बहरहाल ये तभी संभव हो सकता है जब मतदाता को ‘आप’ में विकल्प नज़र आये अगर ऐसा कुछ हुआ तो उत्तराखण्ड में किसी भी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलना नामुमकिन है ऐसे में ‘त्रिशंकु’ सरकार ही एकमात्र परिणाम होगा ,वहीं यदि ‘आप’ उत्तराखण्ड में आशा के अनुरूप प्रदर्शन कर गई तो प्रदेश का एक मात्र क्षेत्रिय दल जो उत्तराखण्ड आन्दोलन का प्रणेता रहा है उत्तराखण्ड क्रांति दल उसके दोबारा से खड़े होने की उम्मीदें हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगी। ये भी संभव है किं भाजपा को सत्ताविरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है , क्योंकि भाजपा द्वारा पांच साल में तीन सीएम बनाना इस बात का संकेत है , बहरहाल कर्नल कोठियाल ‘आप’ की नाव पर सवार होकर राजनीतिक भविष्य तलाशने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनका अन्दाज तो ये ही बता रहा है कि कर्नल सियासी अंकगणित बिगाड़ने की महारत जरूर रखते हैं , लिहाजा ये बात कहने में कोई गुरेज नहीं है कि ‘आप’ मौजूदा चुनावी समर में भाजपा और कांग्रेस दोनों को कांटे की तरह से चुभ रही है।
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