आलेख --भारत दर्शन




 प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम  /  

मैंने अब तक अपना देश नहीं देखा है। जो देखा है, वह नगण्य है। उत्तर प्रदेश से लेकर मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात के भग्न मंदिरों को पहले देखना चाहता हूं। फिर ओड़िशा और दक्षिण भारत की यात्रा पर जाना चाहता हूं। उस अभिलषित विचरण का प्रस्थान बिन्दु कब आएगा, फिलहाल नहीं जानता। लेकिन ऐसा मानता हूं कि वह समय जल्दी ही आएगा। मैं कुतुबमीनार परिसर में पांच-सात बार गया हूं। वहां कुतुबमीनार को देखने नहीं जाता। भगवान विष्णु के उस महान मंदिर का रोता उजड़ा हुआ क्लान्त वर्तमान देखने जाता हूं, जहां की संस्कृत शिलापट्टिका पर गुप्त सम्राट की अप्रतिम शौर्यगाथा उत्कीर्ण है। स्तब्ध होकर परिसर की खण्डित मूर्तियों, कान्तिहीन प्रस्तरखण्डों और स्तम्भों को निहारता हूं। मन बैठता चला जाता है। कान के पास से सनसनाते हुए अबाबील आकाश में उड़ते हुए दिखाई देते हैं। लगता है, बस यही रह गया है। 


नीलकंठ महादेव..। अरावली की एक सूनी पहाड़ी पर छोटा सा मंदिर है। लगभग हजार वर्ष प्राचीन। उसका स्थापत्य आंखों से उतरता नहीं। गर्भगृह के प्राचीर पर हाथ रख कर मैं इतिहास में धंसता चला गया था। अनुभव करना चाहता था कि वह युग कैसा रहा होगा। कैसा रहा होगा उसका वैभव। उस मंदिर के सामने, थोड़ी ढलान पर दूसरे विशालतर देवालय का भग्नावशेष है। मुख्य मंदिर तो ढह चुका है। केवल उसका प्रवेश द्वार, स्तंभ, नक्काशियों वाले गौरवशाली प्रस्तरखण्ड रह गए हैं। उसका ध्वस्त वर्तमान.. दमकते भूत की बस एक झांकी छोड़ता है। लोग ठहर कर विचारने लगते हैं कि वह अपने उत्कर्षकाल में कैसा सुघड़, मनोहारी और विहंगम रहा होगा।

बुंदेलखंड से लेकर मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र तक ऐसे सैकड़ों महान मंदिर हैं, जहां होते हुए आप सहज नहीं हो पाते। उन्हे एक पर्यटक की तरह देखना संभव नहीं है। उन्हें काल के सातत्य में, युगों-युगों से चली आ रही, स्पंदित भारतीयता के साथ देखना होगा। अनुभव करना होगा कि आप के पुरखों ने किस आत्मीयता, कलाबोध, अभिमान, प्रेम और गौरव से उन्हें वह स्वरूप दिया और  कितनी निर्दयता से उन्हें ध्वस्त करने के प्रयास किए जाते रहे। उन सभी मंदिरों में उत्कीर्ण मूर्तियों के नाक कान और हाथ नहीं हैं। काफिरों के बुत तोड़े गए। जहां तक संभव हुआ नष्ट किया गया। उन्हें अपरूप कर दिया गया।

विखंडन का यह बर्बर खेल संपूर्ण उत्तर मध्य पश्चिम पूर्व और विंध्य के पार महाराष्ट्र के कैलासनाथ, कर्नाटक के विजयनगरम तक चलता रहा। विजयनगरम के भग्नावशेष को देखकर अगर कोई रुद्धकण्ठ न रह जाय तो वह हिन्दू नहीं है। विजयनगरम का रोता हुआ वर्तमान इस सत्य का जीवंत उदाहरण है कि भारत विश्व की सबसे घायल सभ्यता है। जिसने शतियों तक भयंकरतम आघात, आक्रमण सहे हैं। एक ऐसा देश जिसने पूरे विश्व के सामने सबसे पहले ज्ञान, चिंतन, मनन आचार विचार संवाद की सभ्यता प्रतिष्ठित की। जहां हजारों वर्ष पूर्व सत्य की खोज की जाती रही।भाषा विज्ञान से लेकर गणित, अंतरिक्ष विज्ञान तर्कशास्त्र, साहित्य में हम दुनिया के दूसरे देशों से बहुत आगे थे। और यह सब हमने उस कालखण्ड में कर लिया था, जब तीन चौथाई दुनिया अधनंगी घूम रही थी।

पठन-पाठन और चिंतन मनन की यह हजारों वर्ष पुरानी भारतीय परम्परा ग्यारहवीं बारहवीं सदी के बाद जड़ होती चली गई। इस समय के बाद भारत में ज्ञान विज्ञान और दर्शन साहित्य में बहुत कम काम हो सका। जिसका मूल कारण केवल यह कि भारत शतियों तक युद्धरत रहा। न हमारे देवालय सुरक्षित रहे। न नगर, गांव और वहां के सामान्य नागरिक। स्त्रियों बच्चों से लेकर सैनिक तक लड़ते रहे। इस भयावह संघर्षकाल में हमने केवल उत्पात घात, भंजन,दाह  मृत्यु, बलात्कार देखे। हजारों हजार महान मंदिर तोड़े गए। जीवन से उन्मुक्त भारतीयता के संस्कार ही चले गए। वह जो भारत था, नहीं रहा।

आज जब हम अपनी धरोहरों को नैराश्य में डूब कर देखते हैं। खंडित मूर्तियों वाले देवालय के पास दग्ध मन से रोते हैं। उसके वैभवशाली अतीत में होने के असफल प्रयास करते हुए एक अकथनीय छटपटाहट से भर उठते हैं, तब हमें एक ही इच्छा होती है कि उन सब मंदिरों में प्रवेश करते हुए हम उसके ध्वंस की कथा भी पढ़ें। सरकार इन सभी देवालयों विरासतों के प्रवेश द्वार पर बड़े बड़े अक्षरों में सूचनापट लगाए कि भारत का यह स्वर्णिम अतीत किस खिलजी, तुगलक, लोदी, शाह,तैमूर, मुगल के द्वारा खण्डित किया गया। हर भारतवासी को यह जानना चाहिए। यह उसका मौलिक और सबसे पवित्र अधिकार है। 

ये मंदिर कोई सिनेमा नहीं। कोई चिड़ियाघर नहीं, कोई पार्क मॉल नहीं कि आदमी चकल्लस करते हुए, सेल्फी लेते हुए लौट आए और कहे कि हां, वह मंदिर देखने घूमने गए थे ! ये देवालय हमारी सभ्यता के उच्चतम शिखर थे। वहां से निकलते हुए हर भारतवासी को यह अवश्य जानना चाहिए कि हम क्या थे। हमारे साथ क्या हुआ। हम कहां से कहां आ पहुंचे। हमारे पुरखों ने कितना भीषण संघर्ष किया। मैं व्यक्तिगत तौर पर इन स्थलों पर होते हुए,  इतिहास की कथाओं को पढ़ते हुए वर्तमान में नहीं रह पाता। काल का सन्तरण कर पीछे लौटता हूं। मेरे चारों ओर धधकती हुई अग्नि की लपटें उठती रहती हैं। मैं अपने थरथराते पांवों से आगे बढ़ता हूं। इन विराट मंदिरों के किसी स्तम्भ, शिलाखंड को छूकर पुरखों का परस पाना चाहता हूं। पर निराश रह जाता हूं।

इन देवगृहों को मैं ठिठक कर देखता हूं। बस देखता रह जाता हूं। महाबलीपुरम के सागर मंदिर में घूमते हुए मुझे कुछ विचित्र सी अनुभूति हुई थी। ढलते हुए दिन के साथ सूरज क्षितिज के छज्जे से सागर में उतर रहा था। तट सूना होने लगा था। नीली सांझ शिखर के ऊपर से नीचे सरक रही थी।  सागर रह रह कर किनारे को नहलाता, अपने जल में लौट जाता। जल की उस हिलोर, उस शोर के बीच मेरे पांव यंत्रवत परिक्रमा कर रहे थे। मेरा मन कहीं और टंग गया था। मैं सोचता था,  काश....काश  मैं उस भारत में लौट पाता।

युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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