कविता - दहेज़ एक कुप्रथा
आशीष तिवारी निर्मल
लिखा नही इस विषय में निर्मल, लिखना बहुत ज़रूरी है
सच बोलो ऐ दहेज़ लोभियों क्या दहेज़ लेना मजबूरी है?
न जाने कितने ही घर बर्बाद हो रहे दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ,बैठ न पाईं डोली में।
पिता के नयनों में आंसू है,बेटी के हाथ पीले कराने में
कितनों के जोड़े हाथ,पैर पड़े,शर्म आती है बतलाने में।
घर गहने,खेत,खलिहान बिके इस दहेज़ की बोली में
बेमौत मर रही कितनी ही बेटियाँ,बैठ न पाईं डोली में।
दहेज़ लोभी समाज की हैं यह कितनी भयावह तस्वीरें
बिखर चुके कई परिवार यहाँ और फूट रही हैं तकदीरें ।
पढ़े-लिखे,शिक्षित जवान,क्यूँ बनते आज भिखारी हो
दहेज़ मांगने वालों तुम समाज की गंभीर बीमारी हो।
जिस पर गुजरे वो ही जाने,बात नही है यह कहने की
इतना मत माँगो दहेज़ कि सीमा टूट ही जाए सहने की।
इसी दहेज़ के चलते शायद पति-पत्नी मे तना तनी है
बेटी कहकर बहू ले आने वाली सासू माँ हैवान बनी है।
काग़जी टुकड़ो की ख़ातिर कितनी रार मचाई जाती है
कितनी ही बेकसूर बहुएँ बलि वेदी पे चढ़ाई जाती हैं।
मानो मेरा कहना दहेज़ लोभियों का इतना प्रबंध करो
जेल मे डालो इनको व इनके घर बेटी ब्याहना बंद करो।
कवि
रीवा मध्य प्रदेश
8602929616
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