छात्रों के जीवन से खिलवाड़ करते खस्ताहाल सरकारी स्कूल



देहरादून: कहते बच्चे देश का भविष्य होते हैं लेकिन जब देश के भविष्य को ही सरकार सुरक्षित जीवन नहीं दे सकती तो फिर बड़े बड़े मंचों से बड़ी बड़ी बाते क्यों ? ये बात सोचने पर मजबूर कर देती है कि देश में मंदिर,मस्जिद बनने पर जोर है लेकिन विद्या के मंदिर की किसी को सुध नही है। बहरहाल हम बात कर रहे हैं अपने उत्तराखण्ड की और वो भी धर्मनगरी के कुछ ऐसे स्कूलों की जहां नौनिहालों के जीवन से सचमुच खिलवाड़ किया जा रहा है।

आपको बता दें कि हमारा उत्तराखण्ड जो गर्व से सीना फुलाकर कहता कि नई शिक्षा नीति लागू करने में उसका नम्बर अव्वल है यानि पहला प्रदेश बनने का गौरव हासिल करने वाला प्रदेश। सरकार इस बात का जोर शोर से प्रचार कर रही है। इतना ही नहीं हर बार नया सेशन शुरू होने से पहले शिक्षा विभाग के अधिकारी दूसरे प्रदेशों का दौरा करके वहां के शिक्षा के मॉडल लागू करने की दलीलें देते हों । या फिर सरकार स्कूलों को निजि स्कूलों की तर्ज पर डेवलप करने के दावे होते हैं।

लेकिन अगर आप इसकी जमीनी हकीकत देखें तो कुछ और ही नजर आयेगा। देवभूमि उत्तराखण्ड में ऐसे सरकारी प्राथमिक स्कूल हैं जो देश आजादी के पहले से या फिर देश आजादी होने के वक्त से ही किराए के भवनों में चल रहे हैं। सरकार के इन दावों की पोल वो स्कूल खोलते है जिन स्कूलों के भवन की कहीं छत नहीं हैं तो कहीं बैठने के लिए कमरे ही नहीं हैं । फिर शौचालय और बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की बात करना तो बहुत दूर की बात है।

स्कूलो के हेडमास्टरों का कहना है कि भवन किराये के होने की वजह से विभाग इनकी मरम्मत नहीं करवा पा रहा है और नई जगह पर भवन बनाने के लिए जमीन नहीं मिलने का रोना रो रहा है।कुछ स्कूल ऐसे है जहां एक शिक्षक के हवाले 2 दर्जन से ज्यादा छात्र हैं । स्कूल भवन जर्जर हाल में है बड़ा हास्यापद हे कि इन स्कूलों में चुनाव के समय पोलिंग बूथ भी बनायेे जाते है फिर इन बूथों पर बड़े बड़े अधिकारियों का आना होता होगा सवाल ये उठता हे कि पोलिंग ऐसे जर्जर स्कूलों में एक दिन की लेकिन नौनिहाल किस तरह से खतरों के खिलाड़ी बनकर इन स्कूलों में अपने भविष्य को सजाने संवारने का सपना संजोये बैठे हैं।

सवाल सबसे बड़ा ये है कि जिन स्कूलों में बच्चों के बैठने के लिए कोई कमरा नहीं है केवल दोनों तरफ बरामदे हैं। ऐसे में ज्यादा बारिश होने पर स्कूल में भवन तो हैं लेकिन छत नहीं हैं। बच्चों को खुले आसमान के नीचे बैैठाकर पढ़ाने के लिए शिक्षक मजबूर हो जाते हैं बारिश और गर्मी के मौसम में बच्चों को तिरपाल के नीचे बैठाकर पढ़ाया जाता है।

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